3 दशक बाद मऊगंज में प्रदीप पटेल ने खिलाया कमल, कांग्रेस-बसपा का गढ़ ध्वस्त, स्वतंत्र उम्मीदवारों का रहा दबदबा

संतोष पाण्डेय@मऊगंज। मऊगंज विधानसभा सीट में पहली दफा 1957 में चुनाव हुआ। जिसमें दो विधायक चुने गए। निर्दलीय प्रत्याशी की हैसियत से अच्युतानंद मिश्र और कांग्रेस की टिकट पर सोमेश्वर सिंह विधायक बने। अच्युतानंद को 7597 और सोमेश्वर को 7500 वोट मिले। तब मऊगंज रीवा जिले का हिस्सा था। मौजूदा समय में मऊगंज अब रीवा जिले से अलग होकर नए जिले का स्वरूप ले चुका है।

14 बार हुए विधानसभा चुनाव में यहां कांग्रेस के प्रत्याशियों को विजय श्री 6 बार मिली है। जबकि तीन बार निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीतने में कामयाब रहे। इसके अलावा तीन बार बसपा। दो बार भाजपा और एक बार भाजश प्रत्याशी को जीत मिली है। यह विधानसभा सीट कांग्रेस प्रत्याशियों के लिए कामधेनु गाय की तरह थी, लेकिन लगातार तीन मर्तबा बसपा प्रत्याशी ने अन्य उम्मीदवारों को सियासी अखाड़े में चित करते हुए हाथी की चाल को आगे बढ़ाया।

वक्त के साथ यहां मतदाताओं का रुझान बदला और देश एवं प्रदेश की राजनीति में जबरदस्त बदलाव देखने को मिला। इसका असर मऊगंज विधानसभा सीट पर भी पड़ा। नतीजतन तीन दशक बाद भाजपा के प्रत्याशी प्रदीप पटेल ने कांग्रेस के सुखेंद्र सिंह को सर्वाधिक मतों से हराकर भाजपा का कमल खिलाया। प्रदीप पटेल ने इतना ही नहीं किया बल्कि बसपा के गढ़ को भी धूल में मिलाते हुए हाथी के पैरों में बेड़ियां डाल दी।

18 साल तक कांग्रेस और निर्दलीयों का रहा दबदबा
1962 के चुनाव में कांग्रेस की टिकट पर छोटेलाल ने आरआरपी के प्रत्याशी कलुआ को 4188 मतों से पराजित कर दिया। छोटेलाल को 5527 वोट, जबकि कलुआ 1339 वोट में सिमट कर रह गए। 1967 के चुनाव में स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतरे। जगदीश प्रसाद तिवारी मसूरिहा का मुकाबला कांग्रेस के उम्मीदवार रामधनी मिश्र से था। इस बार जीत जगदीश तिवारी को मिली। उन्हें 12578 और रामधनी को 12205 मत मिले।

बता दें की मऊगंज विधानसभा सीट में अब तक हुए चुनाव में सबसे कम वोट से चुनाव हारने का रिकॉर्ड रामधनी के ही नाम है। वे 373 वोट से पराजित हुए। 1972 के चुनाव में रामधनी मिश्र कांग्रेस का दामन छोड़कर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतरे। इस बार उनका मुकाबला फिर जगदीश तिवारी से था लेकिन जगदीश तिवारी इस बार कांग्रेस की टिकट पर भाग्य आजमाने जनता के बीच आए थे। लेकिन उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा।

रामधनी को 13599 और जगदीश तिवारी को 10689 वोट मिले और वे 2916 वोट से मात खा गए। रामधनी मिश्रा ने पिछली पराजय का बदला भी ले लिया। 1977 में कांग्रेस ने फिर अपना प्रत्याशी बदल दिया। 1957 में निर्दलीय प्रत्याशी की हैसियत से चुनाव जीतने वाले अच्युतानंद मिश्र को दो दशक बाद पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया। जबकि जनता पार्टी से केशव पाण्डेय ने ताल ठोका। अब की अच्युतानंद मिश्र 600 वोटो से चुनाव जीतने में सफल रहे। उन्हें 9940 और केशव को 9340 मत मिले। बीस साल बाद फिर उनके सिर पर जीत का सेहरा बंधा।

एक दशक तक कांग्रेस और भाजपा के बीच हुई टक्कर
1980 के चुनाव में अच्युतानंद मिश्र फिर कांग्रेस के प्रत्याशी बनाए गए। जबकि जगदीश तिवारी को भाजपा ने टिकट नहीं दिया। वह निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से किस्मत आजमाने जनता के बीच आए। इस बार फिर मतदाताओं ने अच्युतानंद मिश्र जिन्हें क्षेत्र की जनता सम्मान के साथ स्वामी जी कहती थी। उन्हें फिर विधायक बनाया। श्री मिश्र को 15759 मत प्राप्त हुए। जबकि श्री तिवारी को 12454 वोट मिले। वे चुनाव हार गए, लेकिन 1985 में जगदीश तिवारी ने बाजी पलट दी। इस बार वे भाजपा से उम्मीदवार बनाए गए।

उनका मुकाबला कांग्रेस के अच्युतानंद मिश्र से था, लेकिन उन्होंने अच्युतानंदन को पटखनी देते हुए पिछली हार का बदला ले लिया। जगदीश तिवारी को 21354 और स्वामी जी को 16323 वोट मिले। इस तरह श्री तिवारी ने 5031 वोट से यह चुनाव जीत लिया। इस चुनाव के बाद जगदीश तिवारी और अच्युतानंद मिश्र का सियासी भविष्य समाप्त हो गया। 1990 में कांग्रेस ने स्वामी जी के पुत्र उदय मिश्र को अपना प्रत्याशी बनाया।

जबकि भाजपा ने केशव पाण्डेय पर दांव खेला, लेकिन भाजपा ने कुछ मतों के अंतर से चुनाव गवां दिया। उदय प्रकाश को 18801 और केशव को 17865 मत मिले। वे 936 वोट से चुनाव जीत गए। इसके बाद उनका राजनीतिक भविष्य भी समाप्त हो गया। इस तरह स्वामी जी और उनके पुत्र दोनों विधायक बनने में सफल रहे, लेकिन 1990 के बाद उदय प्रकाश मिश्रा कभी भी विधायक नहीं बने। इस राजनीतिक घराने का सूर्य अस्त हो गया।

मऊगंज में चिघाड़ा हाथी
मऊगंज विधानसभा क्षेत्र में डेढ़ दशक तक हाथी की चिंघाड़ गूंजती रही। 1993 से लेकर 2003 तक बसपा के आईएमपी वर्मा हाथी पर सवार होकर यहां राज किये। दूर-दूर तक उनका विरोधी कुछ नहीं बिगाड़ सका चाहे वह कांग्रेस से रहा हो। या बीजेपी से या फिर अन्य पार्टी से। ड़ेढ़ दशक तक आईएमपी वर्मा ने मऊगंज पर राज किया, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उन्होंने मऊगंज के लिए ऐसा कोई काम नहीं किया। जिसे जनता याद रखे।

बता दें कि 1993 में भाजपा के केशव पाण्डेय से आईएमपी वर्मा का मुकाबला था। इस चुनाव में वर्मा ने 26618 मत प्राप्त किया और केशव पाण्डेय को 6059 मत से चुनाव हरा दिया। केशव को 20559 वोट मिले। 1998 के चुनाव में आईएमपी वर्मा का मुकाबला कांग्रेस के राकेश रतन सिंह से था। इस बार फिर वर्मा ने कांग्रेस को चारों खाने चित किया। वर्मा को 24485 और राकेश को 21850 मत मिले और वे 2635 वोट से किनारे लग गए। राकेश रतन सिंह को कांग्रेस ने तीन बार आजमाया लेकिन तीनों बार उनकी किस्मत दगा दे गई। वह आज बिस्तर पर पड़े हुए हैं। 2003 का चुनाव जब आया तब सूबे की सियासी फिजा बदल चुकी थी।

एक दशक के कांग्रेस के कार्यकाल से जनता ऊब चुकी थी सूबे के मुखिया रहे दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में सड़क, बिजली,और पानी जैसी बुनियादी समस्याओं का खात्मा तो नहीं हुआ, लेकिन इजाफा जरूर होता चला गया। जिसके चलते प्रदेश की जनता ने दिग्गी राजा की सरकार को उखाड़ फेंकने का मन बना लिया। भाजपा ने चुनाव की बागडोर उमा भारती के हाथों में सौंप दी और उमा भारती के नेतृत्व में सरकार भी बनी, लेकिन मऊगंज का दुर्भाग्य एक बार फिर सर चढ़कर बोल यहां से आईएमपी वर्मा बसपा की टिकट पर फिर चुनावी समर में उतरे। इनका मुकाबला सवर्ण समाज पार्टी के लक्ष्मण तिवारी से था, लेकिन आईएमपी वर्मा का प्रारब्ध फिर उन्हें विधायक की कुर्सी तक ले जाने में कामयाब रहा। उन्हें 31606 वोट मिले जबकि ससपा प्रत्याशी को 26 742 वोट प्रकार संतुष्ट होना पड़ा और वह 4864 वोट से चुनाव हार गए।

लक्ष्मण के भाग्य ने दिया साथ
सवर्ण समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की हैसियत से मऊगंज में अपना सियासी भविष्य बनाने आए लक्ष्मण तिवारी को अब तक शिकस्त का ही सामना करना पड़ा, लेकिन 2003 में प्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार को समाप्त कर भाजपा की सरकार बनाने वाली उमा भारती को जब तिरंगा मामले में इस्तीफा देना पड़ा। तब उन्होंने भाजपा से नाराज होकर भारतीय जनशक्ति पार्टी की घोषणा की। पूरे प्रदेश में उन्होंने अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे। लक्ष्मण तिवारी भी 2008 के चुनाव में भाजस से प्रत्याशी थे। इस बार उनकी तकदीर ने साथ दिया। उन्होंने चुनाव जीतकर भाजपा के अखंड प्रताप सिंह को धूल चटा दी। लक्ष्मण को 24149 और अखंड को 19270 वोट मिले। इस तरह लक्ष्मण तिवारी 4879 वोट से चुनाव जीत कर पहली बार विधायक बने।

दो दशक बाद कांग्रेस की वापसी
1990 में उदय प्रकाश मिश्रा के बाद कांग्रेस यहां से लगातार चुनाव हारती रही लेकिन 2013 में कांग्रेस के सुखेंद्र सिंह ने चुनाव जीतकर इस सूखे को खत्म किया। इस बार कांग्रेस और भाजपा के बीच लड़ाई थी। उमा भारती के भाजपा में वापसी के बाद लक्ष्मण तिवारी भी भाजपा में लौट आए। उन्हें टिकट भी मिल गई लेकिन वह अपनी जीत को दोहरा नहीं सके और कांग्रेस के हाथों पिट कर यह सीट कांग्रेस की झोली में डाल दिया। सुखेंद्र सिंह को 38898 और लक्ष्मण को 28132 वोट मिले। वह 10766 वोट से चुनाव हार गए।

तीन दशक बाद खिला कमल
2003 के चुनाव से प्रदेश में लगातार भाजपा की सरकार रही। दुर्भाग्य यह रहा कि इस दौरान मऊगंज से कभी भी सत्ता पक्ष का विधायक चुनाव नहीं जीत पाया। जिसके चलते मऊगंज के विकास के पहिए जाम हो गए, लेकिन 2018 में भाजपा ने दो बार के कैबिनेट मंत्री दर्जा प्राप्त प्रदीप पटेल पर दांव खेला। प्रदीप पटेल ने इस बार भाजपा को निराश नहीं किया। उनका मुकाबला पूर्व विधायक कांग्रेस के सुखेंद्र सिंह से था। हालांकि लक्ष्मण तिवारी भी चुनाव मैदान में थे, लेकिन वह अपनी जमानत गवां बैठे। प्रदीप पटेल को जनता ने सिर आंखों पर बैठाया और 47753 मत देकर उन्हें विधायक भी बनाया। उनके मुकाबले निकटतम प्रतिद्वंदी सुखेन्द्र सिंह 36661 वोट पर सिमट गए और प्रदीप पटेल ने यह बाजी 11092 मतों से जीत ली।

आपको यह जानना भी है जरूरी
– इस विधानसभा सीट पर पहली बार दो विधायक चुनाव जीते।
– सर्वाधिक मत पाने और जीत का रिकॉर्ड प्रदीप पटेल के नाम दर्ज हुआ।
– अच्युतानंद मिश्र के घराने का वर्चस्व कायम रहा। तीन बार अच्युतानंद और एक बार उनके पुत्र उदय प्रकाश ने चुनाव जीता लेकिन अब इस घराने का सियासी भविष्य समाप्त हो चुका।
– तीन मर्तबा चुनाव जीतने वाले इकलौते विधायक बसपा के आईएमपी वर्मा ने रिकॉर्ड बनाया जो अभी तक कायम है।
– 1957 में पहली मर्तबा निर्दलीय प्रत्याशी की हैसियत से चुनाव जीतने वाले अच्युतानंद मिश्र को दो दशक तक विधायक बनने के लिए इंतजार करना पड़ा।
– अच्युतानंद मिश्र और एक बार विधायक बने रामधनी मिश्रा भले ही कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े लेकिन एक दूसरे के धुर विरोधी थे।
– सबसे कम 373 वोट से चुनाव हारने का रिकॉर्ड रामधनी मिश्र के नाम है।
– सर्वाधिक मतों से हारने का रिकॉर्ड कांग्रेस के सुखेंद्र सिंह बन्ना के नाम।
– इस विधानसभा से 6 बार कांग्रेस, तीन बार निर्दलीय, तीन मर्तबा बसपा, दो बार भाजपा और एक बार भाजश प्रत्याशी ने चुनाव जीता।

Sameeksha mishra

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