Purnima Vrat Katha In Hindi: पति-पत्नी ने रखा 32 पूर्णिमा का व्रत, घर में गूंजी किलकारी, मां यशोदा के कहने पर कृष्ण ने सुनाई कहानी

ब्रह्मवाक्य. धर्म-अध्यात्म। जो लोग पूर्णिमा का व्रत करते हैं। उन पर हमेशा भोलेनाथ की कृपा बनी रहती है। पूर्णिमा महीने में एक बार आती है। वहीं वर्षभर में 12 बार। पूर्णिमा के दिन पवित्र नदियों में स्नान, दान व व्रत का विशेष महत्व माना गया है। पूर्णिमा व्रत के दौरान शिव जी का पूजन किया जाता है। इसके बाद पूर्णिमा व्रत कथा सुनी जाती है।

पूर्णिमा व्रत की संपूर्ण कथा

द्वापर युग में एक बार देवी यशोदा जी ने कृष्ण से कहा- हे कृष्ण! तुम सारे संसार के रचियता तथा पालनहार हो, आज कोई ऐसा उपाय मुझसे कहो, जिसके करने से स्त्रियों को मृत्युलोक में वैधत्व का दुख न पड़े एवं सौभाग्य की प्राप्ति हो और उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो। श्रीकृष्ण कहने लगे – हे माता! मैं आपको एक उपाय विस्तार से बताता हूं। सौभाग्य की प्राप्ति के लिए स्त्रियों को बत्तीस पूर्णमासियों का व्रत करना चाहिए।

श्रीकृष्ण जी आगे कहने लगे कि इस धरती पर एक राजा चन्द्रहास की अनेक प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण ‘कातिका’ नाम की नगरी थी। वहां पर धनेश्वर नाम का एक ब्राह्मण था और उसकी स्त्री अति सुशील एवं रूपवती थी। दोनों ही उस नगरी में बड़े प्रेम के साथ रहते थे। घर में धन-धान्य आदि की कमी नहीं थी। उनको केवल एक दुख था कि उनके कोई सन्तान नहीं थी, इस कारण वे अत्यन्त दुखी रहते थे। एक समय एक योगी उसी नगरी में आया।

वह योगी उस ब्राह्मण के घर को छोड़कर अन्य सब घरों से भिक्षा लेकर भोजन किया करता था। एक दिन हमेशा की तरह योगी भिक्षान्न को प्रेम पूर्वक खा रहा था कि धनेश्वर ने योगी का यह सब कार्य देख लिया। धनेश्वर योगी से बोला – महात्मन् ! आप सब घरों से भिक्षा लेते हैं परन्तु मेरे घर की भिक्षा कभी भी नहीं लेते, इसका कारण क्या है? योगी ने कहा कि निःसन्तान के घर की भीख पतितों के अन्न के तुल्य होती है और जो पतितों का अन्न खाता है वह भी पतित हो जाता है।

चूंकि तुम निःसन्तान हो, अतः पतित हो जाने के भय से मैं तुम्हारे घर की भिक्षा नहीं लेता हूँ। धनेश्वर यह बात सुनकर अपने मन में बहुत दुखी हुआ और हाथ जोड़कर योगी के पैरों पर गिर पड़ा तथा कहने लगा – हे महाराज! यदि ऐसा है तो आप मुझको पुत्र प्राप्ति का उपाय बताइये। आप सर्वज्ञ हैं, मुझ पर अवश्य ही कृपा कीजिए। मैं पुत्र न होने के कारण अत्यन्त दुखी हूं। आप मेरे इस दुख का हरण करें, आप सामर्थ्यवान हैं। यह सुनकर योगी कहने लगे – हे ब्राह्मण! तुम चण्डी की आराधना करो।

घर आकर उसने अपने स्त्री से सब वृत्तान्त कहा और स्वयं तप के निमित्त वन में चला गया। वन में जाकर उसने चण्डी की उपासना की और उपवास किया। चण्डी ने सोलहवें दिन उसको स्वप्न में दर्शन दिया और कहा – हे धनेश्वर! जातेरे पुत्र होगा, परन्तु वह 16 वर्ष की आयु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। यदि तुम दोनों स्त्री-पुरुष बत्तीस पूर्णमासियों का व्रत विधि पूर्वक करोगे तो वह दीर्घायु होगा। प्रातःकाल होने पर इस स्थान के समीप ही तुम्हें एक आम का वृक्ष दिखाई देगा।

उस पर चढ़कर एक फल तोड़कर शीघ्र अपने घर चले जाना, अपनी स्त्री को खिलाना। ऋतु-स्नान के पश्चात वह स्वच्छ होकर, श्रीशंकर जी का ध्यान करके उस फल को खा लेगी। तब शंकर भगवान् की कृपा से उसको गर्भ हो जायगा। जब वह ब्राह्मण प्रातःकाल उठा तो उसने उस स्थान के पास ही एक आम का वृक्ष देखा जिस पर एक अत्यन्त सुन्दर आम का फल लगा हुआ था।धनेश्वर वृक्ष पर चढ़ गया और उसने एक अति सुन्दर आम का फल देखा, ब्राह्मण ने जल्दी से उस फल को तोड़कर अपनी स्त्री को लाकर दिया और उसकी स्त्री ने अपने पति के कथनानुसार उस फल को खा लिया और वह गर्भवती हो गई।

देवी जी की असीम कृपा से उसे एक अत्यन्त सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम उन्होंने देवीदास रखा। माता-पिता के हर्ष के साथ वह बालक बढ़ने लगा। भवानी की कृपा से वह बालक बहुत ही सुन्दर, सुशील और पढ़ने में बहुत ही निपुण हो गया। दुर्गा जी की आज्ञानुसार उसकी माता ने बत्तीस पूर्णमासी का व्रत रखना प्रारम्भ कर दिया था, जिससे उसका पुत्र बड़ी आयु वाला हो जाए।सोलहवां वर्ष लगते ही देवीदास के माता-पिता को चिन्ता हुई कि कहीं उनके पुत्र की इस वर्ष मृत्यु न हो जाए।

इसलिए उन्होंने अपने मन में विचार किया कि यदि यह दुर्घटना उनके सामने हो गई तो वे कैसे सहन कर सकेंगे? इसलिए उन्होंने देवीदास के मामा को बुलाया और कहा कि हमारी इच्छा है कि देवीदास एक वर्ष तक काशी में जाकर विद्याध्ययन करे इसलिए साथ में तुम चले जाओ और एक वर्ष के पष्चात् इसको वापस लौटा लाना। सब प्रबन्ध करके उसके माता-पिता ने काशी जाने के लिए देवीदास को एक घोड़े पर बैठाकर उसके मामा को उसके साथ भेज दिया।

धनेश्वर ने सपत्नीक अपने पुत्र की मंगलकामना तथा दीर्घायु के लिए भगवती दुर्गा की आराधना और पूर्णमासियों का व्रत करना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार बराबर बत्तीस पूर्णमासी का व्रत पूरा किया।कुछ समय पश्चात् मामा और भान्जा मार्ग में रात्रि बिताने के लिए किसी ग्राम में ठहरे हुए थे, उस दिन उस गांव में एक ब्राह्मण की अत्यन्त सुन्दर, सुशील और गुणवती कन्या का विवाह होने वाला था। जिस धर्मशाला के अन्दर वर और उसकी बारात ठहरी हुई थी।

उसी धर्मशाला में देवीदास और उसके मामा भी ठहरे हुए थे। संयोगवश कन्या को तेल आदि चढ़ाकर मण्डप आदि का कृत्य किया गया तो लग्न के समय वर को धनुर्वात हो गया। अस्तु, वर के पिता ने अपने कुटुम्बियों से परामर्ष करके निश्चय किया कि यह देवीदास मेरे पुत्र जैसा ही सुन्दर है, मैं इसके साथ ही लग्न करा दूं और बाद में विवाह के अन्य कार्य मेरे लड़के के साथ हो जाएंगे। ऐसा सोचकर देवीदास के मामा से जाकर बोला कि तुम थोड़ी देर के लिए अपने भान्जे को हमें दे दो।

जिससे विवाह के लग्न का सब कृत्य सुचारु रूप से हो सके। तब उसका मामा कहने लगा कि जो कुछ भी मधुपर्क आदि कन्यादान के समय वर को मिले वह सब हमें दे दिया जाए, तो मेरा भान्जा इस बारात का दूल्हा बन जाएगा। यह बात वर के पिता ने स्वीकार कर लने पर उसने अपना भान्जा वर बनने को भेज दिया और उसके साथ सब विवाह कार्य रात्रि में विधिपूर्वक सम्पन्न हो गया। पत्नी के साथ वह भोजन न कर सका और अपने मन में सोचने लगा कि न जाने यह कैसी स्त्री होगी।

वह एकान्त में इसी सोच में पड़ गया तथा उसकी आंखों में आंसू भी आ गए। तब वधू ने पूछा कि क्या बात है? आप इतने दुखी क्यों हो रहे हैं? तब उसने सब बातें जो वर के पिता व उसके मामा में हुई थीं उसको बतला दी। तब कन्या कहने लगी कि यह ब्रह्म विवाह के विपरीत हो कैसे सकता है। देव, ब्राह्मण और अग्नि के सामने मैंने आपको ही अपना पति बनाया है इसलिए आप ही मेरे पति हैं। मैं आपकी ही पत्नी रहूंगी, किसी अन्य की कदापि नहीं। तब देवीदास ने कहा – ऐसा मत करिए क्योंकि मेरी आयु बहुत थोड़ी है।

मेरे पश्चात् आपकी क्या गति होगी इन बातों को अच्छी तरह विचार लो। परन्तु वह दृढ़ विचार वाली थी, बोली कि जो आपकी गति होगी वही मेरी गति होगी। हे स्वामी! आप उठिये और भोजन करिए, आप निश्चय ही भूखे होंगे। इसके बाद देवीदास और उसकी पत्नी दोनों ने भोजन किया तथा शेष रात्रि वे सोते रहे। प्रातःकाल देवीदास ने अपनी पत्नी को तीन नगों से जड़ी हुई एक अंगूठी दी, एक रूमाल दिया और बोला – हे प्रिये! इसे लो और संकेत समझकर स्थिर चित्त हो जाओ। यदि मई जीवित रहा तो अवश्य वापस आऊंगा अन्यथा समझ लेना मेरी मृत्यु हो गयी है , यह समझा कर वह चला गया।

प्रातःकाल होते ही वहां पर गाजे-बाजे बजने लगे और जिस समय विवाह के कार्य समाप्त करने के लिए वर तथा सब बाराती मण्डप में आए तो कन्या ने वर को भली प्रकार से देखकर अपने पिता से कहा कि यह मेरा पति नहीं है। मेरा पति वही है, जिसके साथ रात्रि में मेरा पाणिग्रहण हुआ था। इसके साथ मेरा विवाह नहीं हुआ है। यदि यह वही है तो बताए कि मैंने इसको क्या दिया, मधुपर्क और कन्यादान के समय जो मैंने भूषणादि दिए थे उन्हें दिखाए तथा रात में मैंने क्या गुप्त बातें कही थीं, वह सब सुनाए। पिता ने उसके कथनानुसार वर को बुलवाया। कन्या की यह सब बातें सुनकर वह कहने लगा कि मैं कुछ नहीं जानता। इसके पश्चात् लज्जित होकर वह चला गया और सारी बारात भी अपमानित होकर वहां से लौट गई।इस प्रकार देवीदास काशी चला गया।

जब कुछ समय बीत गया तो काल से प्रेरित होकर एक सर्प रात्रि के समय उसको डसने के लिए वहां पर आया परन्तु व्रत के प्रभाव से उसको काट न पाया क्योंकि पहले ही उसकी माता ने बत्तीस पूर्णिमा का व्रत कर रखा था। इसके बाद मध्याह्न के समय स्वयं काल वहां पर आया और उसके शरीर से उसके प्राणों को निकालने का प्रयत्न करने लगा जिससे वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। भगवान् की कृपा से उसी समय पार्वती जी के साथ श्रीशंकर जी वहां पर आ गए।

उसको मूर्छित दशा.में देखकर पार्वती जी ने भगवान् शंकर से प्रार्थना की कि हे महाराज! इस बालक की माता ने पहले बत्तीस पूर्णिमा का व्रत किया था, जिसके प्रभाव से इसका मृत्यु दोष कट गया। भवानी के कहने पर भक्त-वत्सल भगवान् शिव जी ने उसको प्राण दान दे दिया। इस व्रत के प्रभाव से काल को भी पीछे हटना पड़ा और देवीदास स्वस्थ होकर बैठ गया।उधर उसकी स्त्री उसके काल की प्रतीक्षा किया करती थी, जब उसने देखा कि उस पुष्प वाटिका में पत्र-पुष्प कुछ भी नहीं रहे तो उसको अत्यन्त आश्चर्य हुआ।

जब वह वैसे ही हरी-भरी हो गई तो वह जान गई कि वह जीवित हो गये हैं। यह देखकर वह बहुत प्रसन्न मन से अपने पिता के कहने लगी कि पिता जी! मेरे पति जीवित हैं, आप उनको ढूढि़ये। जब सोलहवां वर्ष व्यतीत हो गया तो देवीदास भी अपने मामा के साथ काशी से चल दिया। इधर उसे श्वसुर उसको ढूढ़ने के लिए अपने घर से जाने वाले ही थे कि वह दोनों मामा-भान्जा वहां पर आ गये, उसको आया देखकर उसका श्वसुर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने घर में ले आया।

उस समय नगर के निवासी भी वहां इकट्ठे हो गए और सबने निश्चय किया कि अवश्य ही इसी बालक के साथ इस कन्या का विवाह हुआ था। उस बालक को जब कन्या ने देखा तो पहचान लिया और कहा कि यह तो वही है, जो संकेत करके गया था। तदुपरान्त सभी कहने लगे कि भला हुआ जो यह आ गया और सब नगरवासियों ने आनन्द मनाया।कुछ दिन बाद देवीदास अपनी पत्नी और मामा के साथ अपने श्वसुर के घर से बहुत सा उपहारादि लेकर अपने घर के लिए प्रस्थान किया।

जब वह अपने गांव के निकट आ गया तो कई लोगों ने उसको देखकर उसके माता-पिता को पहले ही जाकर खबर दे दी कि तुम्हारा पुत्र देवीदास अपनी पत्नी और मामा के सहित आ रहा है। ऐसा समाचार सुनकर पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ किन्तु जब और लोगों ने भी आकर उनकी बात का समर्थन किया तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ लेकिन थोड़ी देर में देवीदास ने आकर अपने माता-पिता के चरणों में अपना सिर रखकर प्रणाम किया और उसकी पत्नी ने अपने सास-श्वसुर के चरणों को स्पर्श किया तो माता-पिता ने अपने पुत्र और पुत्रवधु को अपने हृदय से लगा लिया और दोनों की आंखों में प्रेमाश्रु बह चले। अपने पुत्र और पुत्रवधु के आने की खुशी में धनेश्वर ने बड़ा भारी उत्सव किया और ब्राह्मणों को भी बहुत सी दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न किया।

श्रीकृष्ण जी कहने लगे कि इस प्रकार धनेश्वर बत्तीस पूर्णिमाओं के व्रत के प्रभाव से पुत्रवान हो गया। जो भी स्त्रियां इस व्रत को करती हैं, वे जन्म-जन्मान्तर में वैधव्य का दुख नहीं भोगतीं और सदैव सौभाग्यवती रहती हैं, यह मेरा वचन है, इसमें कोई सन्देह नहीं मानना। यह व्रत पुत्र-पौत्रों को देने वाला तथा सम्पूर्ण मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। बत्तीस पूर्णिमाओं के व्रत करने से व्रती की सब इच्छाएं भगवान् शिव जी की कृपा से पूर्ण हो जाती हैं।

पूर्णिमा व्रत के लाभ

– पूर्णिमा व्रत करने से संतान की प्राप्ति होती है, और बच्चे की आयु दीर्घायु होती है। जिन महिलाओं के संतान नही होती वह स्त्री अगर पूर्णिमा व्रत विधि – विधान से करे तो संतान की प्राप्ति होती है।

– जब कुंडली में चंद्रमा कमजोर स्थिति मे हो तो उनके लिए पूर्णिमा का व्रत काफी लाभकारी होता है। पूर्णिमा का व्रत चंद्रमा को मजबूत करता है।

– पूर्णिमा व्रत से मानसिक परेशानियां दूर होती हैं।जीवन में चल रही उथल- पुथल एवं रोजगार की चिंता हो तो उन्हें पूर्णिमा का व्रत रखना चाहिए।

– पूर्णिमा व्रत करने से दांपत्य जीवन अच्छे से बीतता है।इस व्रत के प्रभाव से पति की आयु दीर्घायु होती हैं

-पूर्णिमा के दिन शिवलिंग पर दूध, दही, बेलपत्र, शमी आदि चढ़ाने बहुत पुण्य मिलता है।

Sameeksha mishra

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